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असीम, अतृप्त, अदृश्य, अक्षुण्ण….अपूर्ण इच्छाऐं…. ये अनंत हैं, वैश्विक आर्थिक अधोपतन में सहभागिता निभाने का अमूल्य दायित्व इन्हीं इच्छाओं पर टिका है। अर्श से फर्श या फर्श से अर्श ….ये इच्छाऐं ही प्रबलित विगलित होती है। मानवीय संचेतना का आधारभूत केन्द्र भले ही मस्तिष्क हो परंतु उसमें व्यवहार अथवा व्यापार यानि दुनियावी वातावरण को सुदृढ़ एवं सुनियंत्रित करने में इच्छाओं का बडा हाथ है। चेष्टा… इच्छा दोनों भिन्न है परंतु कहीं-कहीं पर्याय बन गये है।
यदि कहें – ‘उसने धोखा देने की चेष्टा की।’ तो ठीक वाक्य परंतु ‘चेष्टा’ के स्थान पर इच्छा रख देने भर से इसका क्या हश्र होगा यानि वाक्य का शब्द विन्यास बिखर जायेगा-‘उसने धोखा देने की इच्छा की। यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि चेष्टा और इच्छा सर्वथा भिन्न है।
इच्छाओ के इस वातावरण में कई बार दम घुटने लगता है पर अगले ही पल जीने की इच्छा बलवती हो उठती है।
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