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badalta bharat tute mahapurshon ke sapne

सहज प्रवाह
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बदलता भारत, टूटते महापुरुषों के सपने

अन्धकार सा छा रहा है-देश में, विलुप्त हो रही है-मानवता, आत्मा प्रताडित है और शरीर मन का दास बना हुआ है।पाखण्ड, द्वेष,ईष्र्या, धन-लोलुपता आदि हीन भावनाओं ने मानव को अपंग सा बना दिया है। कभी विश्व गुरु कहा जाने वाला भारत आज अपनी वास्तविक पहचान खो चुका है।
हर तरफ-शोषण ही शोषण नजर आता है। स्वामी विवेकानंद ने जिस भारतीय संस्कृति को सरहद पार विदेशों में प्रसारित किया था और भारत को पुनः विश्व गुरु रुप में प्रस्तुत किया था, आज ये सब बातें मात्रा इतिहास बन चुकी है। महापुरुषों के सपने चूर चूर हो रहे हैं……..बदलते भारत में।
भारत की बागडोर संभालने वाले नेता मात्रा कहने भर के नेता है, उन्हें महाठग कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। गरीब जनता का शोषण और देश की सम्पत्ति का भक्षण करना ही शायद इनका कर्म बन चुका है। आज नेतृत्व करने वाले इन बाशिंदों ने नेता शब्द की परिभाषा ही बदल दी है, मेरे विचार में अंाग्लभाषा के शब्द स्म्।क्म्त् शब्द की परिभाषा इस प्रकार होनी चाहिए-

स् . स्प्ज्ञम् । स्।डठ (धोखेबाज)
म् . म्।ज्म्त् व्थ् ब्व्न्छज्त्ल् (देशभक्षक)
। . ।ठम्ज्ज्म्त् (बहकाने वाला)
क् . क्।त्ज्ञ प्छ ैव्न्स् (पापात्मा)
म् . म्डच्ज्ल् भ्म्।त्ज्म्क् (शून्य हृदय)
त् . त्।ज्ज्स्म्त् (बकवादी)
प्रजातंत्र के ये रखवाले अपनी मिट्टी के साथ दगा कर रहे हैं या यूं कहे देश के साथ – बलात्कार।
गरीब का पेट-भूख, इतनी प्यास के आँखों से आँसू भी न आ सके। बच्चों की मधुर किलकारियाँ चीखों में तब्दील हो….गंुजायमान हो….. शोषण की दुहाई दे रही है…वृ़द्ध मन अपनी मौत से पहले ही जिन्दा लाश बनी हुई है। समाज में व्याप्त- वहशीपन, दंिरंदगी और स्वार्थ ने मानव हृदय को कलुषित कर दिया है। आज कहा जा रहा है- भारत उन्नति के मार्ग पर अग्रसर है। खाक, उन्नति! जो मानव हृदयों को मशीनी बना रही है। भ्रष्टाचार में भी अच्छी-खासी उन्नति हो रही है, गरीबी, अशिक्षा, धर्मान्धता, पाश्चात्यता का बाजार गरम है। दधीची जैसे महात्यागियों की इस भू पर आज दुःशासनों की भीड़ लगी है। गली-गली चप्पे-चप्पे पर वहशी स्वतंत्र होकर नाच रहा है। लोकतांत्रिक इस देश में हर तरफ हाहाकार मचा है। सांस्कृतिक प्रदूषण में दिनों दिन इजाफा हो रहा है… इसे बाजारीकरण ने ओर अधिक प्रसारित करने में भरपूर सहयोग दिया है। घर-घर में इसका प्रकोप देखा जा सकता है। जातिवाद, क्षेत्रियता, साम्प्रदायिकता के महाअस्त्रों-शस्त्रों को नेताओं द्वारा भारतीय जनमानस पर फेंका जा रहा है, यही इनक ब्रह्मास्त्र बने हैं जिनमें भोली-भाली जनता को बाँधा जा रहा है।
भारतीय समाज निम्नता की ओर अग्रसर हैै। आज जिन्दगी मात्र सिनेमा बनकर रह गयी हैै। पाश्चात्यता की चाल में भारतीय अपने मूलभूत सिद्धांतों, अपनी सनातन परम्पराओं का स्वयं गला घोटने पर उतारु है। वहीं दूसरी ओर शिक्षा का क्षेत्र भी इससे कम प्रभावित नहीं है, शिक्षण संस्थाओं में बिना रस वाले कोर्स को पूरा करना-कराना ही लक्ष्य बना हुआ है, चारित्रिक शिक्षा का अभाव है, मुझे लगता है, इसी कारणवश प्राचीन छात्र के लक्षण- ‘काक चेष्टा वको ध्यानम्….’ इस प्रकार परिवर्तित हो चुके हैं-
फिल्म चेष्टा, कन्या ध्यानम्, कुम्भकर्ण सम निद्रा तथैव च।
सर्वाहारी, विषयी भोगी, इति नवीन विद्यार्थी पंच लक्षणम्।।

शिक्षित-वर्ग भी आज आडम्बर, पाखण्डों में व्याप्त है और राजनीति ने इसे भी अपनी चपेट में ले लिया है।
भारतीय समाज में व्याप्त विषमताओं और धर्मानधता की भावनाओं ने माँ भारती का सीना चीर दिया ही। आज वेदों की धरती पर ये कैसा ताण्डव ? सिद्धी प्राप्ति कहीं मासूमों की बली सदी जा रही है तो कहीं स्वयं नारी अपने ही स्वरुप को कुचल रही हैं, पशुवत बना समाज, नर-पिशाची कु-विचारों दलित भावनाओं से लिप्त हो घोर आतंकी क्रीडाएँ कर रहा है। कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मौत के घाट उतारा जा रहा है। शायद समाज भूल रहा है……..
‘‘निःशब्द, निःश्वास रह जायेगी
भारत उपवन की कोमल कलियाँ
सोच न पाये ‘भला’ अगर हम
मुरझायेंगी ये कलियाँ
हर आगंन फिर सूना होगा
संसार की रचना थम जायेगी
इस समाज में बेटी क्या
बेटों की कमी पड़ जायेगी।’’

वास्तव में, आज आवश्यकता है एक सुदृढ़ शिक्षित समाज की , एक ऐसे समाज की जो भारतीय संस्कृति का पोषण कर सके, हनन नहीं, एक ऐसे प्रजातंत्र की जो देश हित कार्य करने में सक्षम हो। इसके लिए हमें सिर्फ बदलनी होगी- विचारधारा और एक नया आयाम देना होगा-भारतीय शिक्षा प्रणाली को। सुभाष बाबू सी वैचारिक और अनुशासित क्रंाति और लाल बहादुर शास्त्री जी सी सादगी को फिर से दोहराना होगा और बदलनी होगी अपने अन्ध भारत की तस्वीर, आज जो नेताओं की छवि बन रही है उस छवि को सुधारना होगा। इसमें जनता की अहम भागीदारी रहती ही है अतः जनता ऐसे व्यक्तित्व का चुनाव करें जो देशप्रेमी हो, ईमानदार हो और अपने राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले चलेें अवनति पथ पर नहीं। देश वासियों को कर्मशील बनाने को प्रयत्न हो तथा धन लोलुपता के इस समाज में जो आज भ्रष्टाचार की बयार चली है उसे थामना होगा। यही सब कुछ वैचारिक क्रंाति से संभव है। हम आज उस युग में प्रवेश पा चुके है जहाँ मात्र एटोमिक शक्ैित अथवा बाहुबल को ही नहीं आंका जाता वरन उससे कहीं अधिक बौद्धिक बल, वैचारिकता और व्यक्तित्व को तव्वजो दी जाती है। तब हम क्यूँ इस दौड में स्वयं को पिछडा हुआ महसूस कर रहें है। क्या मात्र हम मिट्टी के लौदें बना रहना चाहते है? इसका विचार तो हमें करना ही होगा।
अन्त में सभी भारतीय हृदयों से निवेदन करुँगा कि अपने राष्ट्र को अपना परिवार मान इसे पूर्णतः सुरक्षा, प्रेम, सौहार्द व विश्वास से परिपूर्ण कर ‘विश्व गुरु’ भारत की खोई पहचान फिर से भेंट करें और तैयार करें- भारतीय समाज हेतु- नवीनता की एक नयी फौज, जिसमें बस देश हित हो…बस देश हित….

जय भारती! वन्दे भारती!

-सत्येन्द्र्र कात्यायन,एम0ए0(हिन्दी, शिक्षाशास्त्र), नेट(हिन्दी), बी0एड0

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