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लोकतंत्र की व्यथा कथा………..
व्यथा कथा की तरह भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान परिस्थिति हो गई है। आज लोकतंत्र में सरकार अपनी भूमिका को भूल गई है। राजनेता देश के प्रति किसी भी प्रकार की जवाबदेही से बचते नजर आ रहें हैं। केन्द्र में व्याप्त है-हलचल और विपक्ष इस हलचल को ओर बढावा देने में लगा है। सभी साफ-सुथरे लिबाजों में खुद पे लगे दागों को धो डालने की कोशिश कर रहें है। जनता को मात्र मजमें की भीड समझ लिया है, जो या तो ताली बजा सकती है या चल रहे करतब को बडे रोमांचक अंदाज में देखने को विवश और उत्सुक। विवश इसलिए की इससे ज्यादा और किया भी क्या जा सकता है? और उत्सुक इसलिए कि शायद कुछ तो ऐसा खेल हो जो आत्मा को बल दे, आनंद दें, कुल मिलाकर जनता इस खेल में दर्श की भूमिका में है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ जनांदोलनो में भोली-भाली जनता बढ-चढकर हिस्स लेती है…….कितनी देर तक ठहरता है ये आंदोलन? प्रशासन अपने कुचक्रों से इसका भेदन कर ही डालता है। जनता फिर निराश। फिर पिसती है। नई राजनीतिक पार्टियाँ बनती है, नये मोर्चे तैयार होते है….पर जनता किस पर विश्वास करें…….ये बडा सवाल, बडा ही बना रहता है। कभी राहुल भैया उसे खिवैया दिखते हैं तो कभी वह मनमोहन की ओर कातर नेत्रों से निहारती है। कभी नरेंद्र मोदी से आस लगा बैठती है तो कभी कभी तीसरे मोर्चे में उसे दमखम नजर आने लगता है। विकल्पहीनता से पुनः निराश होकर स्वयं में पछतावा करती है कि क्या ये वास्तव में लोकतंत्र है या कोई अखाड़ा?
कही दोहराव, कही टकराव, कहीं अलगाव, कहीं दोगलेपन की खेमेबाजी, कही गिराने की कोशिश तो कहीं सहारा देकर उठाने की……ममता दीदी समर्थन वापस लेती है तो कृष्ण वंशज याद जी उन्हेें सहारा देते हैं लेकिन ये कृष्ण वंशज आज नीतियों से कोसो दूर कौरवो की सेना का पक्ष लेते नजर आते हैं। जहाँ संहिताओं, कानूनों, विधियों का चीर हरण किया जा रहा है। शनैः शनैः गौरवशालीह अतीत भी अपना गौरवमय गुणगान सुनते हुए कंपित होने लगेगा। विपरीत रीत बलवती, निराशा, संकटों का घेराव……सब लोकतंत्र की अस्मिता को तार-तार किये हैं। नेता का अर्थ नेतृत्व करने वाला न होकर मात्र छींटाकशी करने वाला हो गया है। ‘एक-दूसरे पर खूब कीचड उछालो’ आंदोलन चरम पर है। देश का विकास थम गया है। मंहगाई डायन खाय जात है और सैंया का रोजगार भी छूटा है।
अंध भारत बना दिया है …..गौरवशाली भारत को। भारत की तस्वीर…..आंकडों में हम कहाँ हैं? कभी ओबामा के आगमन पर हमारी बांछे खिल जाती है तो भी हम एक व्यापारी से पिटते नजर आते हैं। पाकिस्तान के मामले ठंडे बस्ते में डाले जाते हैं- अहम मुद्दे बस समझौतावादी दृष्टिकोण, जैसे हमारी रीढ टूट गयी हो …. कुछ करने लायक ही न रह पाये । हर सरकारी महकमे में बढती घोटालो की संख्या ने लोकतंत्र को घोटालातंत्र में तब्दील किया है। जब कोई साफ बयानी करता है तो उसे चुप करने के लिए हर तरफ उंगली उठती है पर इनके सिरदर्द बनते बयानकृन सिर्फ इतिहास के पन्ने पर दर्ज होते हैं वरन भाषावाद, क्षेत्रवाद को बढावा देने वाले भी। और इतना ही नहीं ये ही लोग स्वयं को देश का सर्वे-सर्वा मान बैठते हैं। वे सोचते हैं देश बस उन्हीं के चलाये चल रहा है।
शिक्षित समाज का नारा तो जोरो शोरों से लगाया जाता रहा है परंत शिक्षा के नाम पर लिपा-पोती्! यह कोई नई बात नहीं…वर्षो से चली आ रही प्रथा का अनुसरण मात्र कर रही है प्रत्येक वर्तमान सरकार। बच्चे स्कूलों में जाते है….भोजन करने…मास्टर जी, प्रधान जी को ये भी बर्दाश्त नहीं, खुद डकार जाते हैं…मासूमों का सब कुछ।…. हमारी सरकार जब स्कूलों में भोजन मुहैया करा सकती तो क्या हम गरीब परिवारों को रोजगार मुहैया नहीं करा सकते ताकि वे अपने बच्चो को सही पोषण देने में सक्षम हों….न कि वो स्कूलों में मात्र खाने के लिए अपने लाडलों को भेजे और कृमियुक्त भोजन उन्हे खाने दें। क्यों वो इतने सक्षम नही बना दिये जाते कि वे गलत नीतियों का विरोध कर सके किन्तु ये सब आंकडों में धीमी गति से पूरा होता है और वास्तविकता में ना के बराबर।
देश के धन को लुटाया जा रहा है। विधायक निधि, सांसद निधि, मुख्यमंत्री कोष आदि सभी का दुरुपयोग कर रहें है- देश के धन
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