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MAUT

सहज प्रवाह
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मौत

मौत! सच !, सच और मौत, दोनों एक सिक्के के दो पहलू। सिक्क- एक, पहलू- दो। ‘जीवन’ – का सफर, मौत – मंजिल। हिन्दूशास्त्र हो या विश्व का कोई अन्य दर्शन, सबने स्वीकारा है- मृत्यु को। यह मौत दबे पांव न जाने कब, कैसे…. इंसान को , सम्पूर्ण सृष्टि के प्राणियों  को अपने शिकंजे में ले लेती है या यूं कहे आगोश में भर लेती है। फिर वह उस जीव को इस कदर प्यार करती है, दुलारती है कि उसके आगोश से बाहर आ पाना मुश्किल ही नहीं, असम्भव हो जाता है, मौत-एक रहस्य।
एक ऐसा रहस्य जिसे जानने-समझने की कोशिश में हम खुद को इस सफर से उस सफर तक लादे फिरते है- सिर्फ लादे। अंततः मौत हमें आगोश में भर ही लेती है और वह रहस्य मात्र रहस्य बना रहता है। एक भेद- जिसे भेदना असम्भव। दावे करने से कुछ नहीं होता, कुदरत की इस रोमांचकारी घटना में रद्दोबदल नहीं की जा सकती ।
मौत ही मनुष्य की वास्तविक प्रकृति है। बाकी सब- सारा जीवन केवल एक ढकोसला। रंगमंच है-जीवन। हम अपने-अपने किरदार निभाकर अंततः अपनी वास्तविक प्रकृति में आ पाते हैं, हम प्रकृति में लीन हो जाते हैं। पाप-पुण्य- सब जीवन कर्मो में घुलकर रह जाता है। यथेष्ट फल भोगकर ही अंतिम यात्रा का टिकट मिलता है।
शिव को तीन रुपों – निर्माणकर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता में परिभाषित किया जाता है। ये रुप विष्णु तुल्य हो या शिव तुल्य लेकिन सृष्टि के चक्र में सम्मिलित है। विनाश के उपरांत -सृजन की प्रक्रिया -चिरस्थायी है। वाह्य लोक से अन्तर्लोक की यात्रा – मात्र कहने भर से नहीं होती। योग का नाम मात्र लेने से ‘योगी’ नहीं बन जाते, भक्ति में बिना डूबे भगवत प्राप्ति नहीं होती, ज्ञान हेतु स्वयं का शोध -उतना ही आवश्यक है जितना शरीर के लिए भोजन।
जीवन है तो मृत्यु भी है। मृत्यु है इसलिए जीवन भी। आरोह-अवरोह का क्रम मात्र गणितीय प्रक्रम को ही प्रकट नहीं करते वरन् प्रकृति में भी ये क्रम पुंनः पुनश्च चलता रहता है।
जब मृत्यु सत्य फिर जीवन व्यर्थ, नहीं सत्य प्राप्ति का साधन है। शरीर जिससे जीवन की चलायमान प्रक्रिया जीवंत होती है। शरीर में आत्मा। आत्मा- जीवन। आत्मा-जीव। जीव- जी रहा है, शरीर तो पहले ही मरा हुआ है। जीव प्रेरित करता है, शरीर एक उपकरण (इन्सट्रूमेन्ट) की भांति कार्य करता है, विचार -मस्तिष्क का खेल। मस्तिष्क में आत्म तत्व होते हुए भी ग्राक क्षमता होती है-सांसारिक ग्राहक। संसार के विभिन्न आयामों को ग्रहण कर मस्तिष्क उन्हें स्वयं के लिए स्वीकार्य अथवा अस्वीकार्य करता है। जीव का भवन- शरीर जहाँ रहता है वहीं से जुडती है उसकी – लोक यात्रा। प्रारम्भिक चरण। जहाँ संगत/साथ/संग का स्पर्श पा विचारों में कुलबुलाहट होती है। मिथ्या जगत के मिथ्या व्यवहार का असर कैद कर लेता है। मनुष्य के साथ ही ये सब होता है, हाँ संगति का असर सब पर। जीवन के सफर में अनेक छोटे-बडे पडाव, बदलाते संदर्भ, जिजीविषा में झटपटाता भाव मनस, स्वयं में स्वयं की प्रतिच्छाया -प्रतीत होता है। जीवन पथ पर चलकर दुर्गम, सुगम झाड-झंकाडों, उपवनों से गुजरकर, अपने लक्ष्य की ओर बिना सोचे समझे बढता है। मौत चरम लक्ष्य है, उसे भूलकर। ‘मौत’ स्वयं भुंलावा देकर ‘जीव’ की यात्रा को विराम देती है, ये मात्र एक लंबा पडाव है-विराम है, जीवन की समाप्ति नहीं। फिर से नये जीवन, नये संघर्ष के लिए-यह सब जरुरी है, बहुत जरुरी।
जय हिन्द! जय जगत!

– सत्येन्द्र कात्यायन, एम0ए0(हिन्दी, शिक्षाशास्त्र), नेट(हिन्दी), बी0एड0

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