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LOKTANTRA KI VYATHA KATHA….(2)

सहज प्रवाह
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क्रमशः….. लोक तंत्र की व्यथा कथा
देश के धन को लुटाया जा रहा है। विधायक निधि, सांसद निधि, मुख्यमंत्री कोष आदि सभी का दुरुपयोग कर रहें है- देश के धन का, सुविधाओं का। जनता ने जिसे चुनकर बैठाया गद्दी पर वो भी उससे मुंह मोडने लगता है। बस! कागजों में होता है काम। कागज देते है-जवाब। कागत करते है-सवाल। हमारा ये प्यारा लोकतंत्र। हमारी सरकारें लुभावनी योजना जनता को बहलाती है फिर सब्ज बाग दिखाकर सबकुछ वैसा का वैसा, जैसा चलता आ रहा है।
लोकतंत्र क्या वास्तव में ऐसा होना चाहिए? ……शायद इन सवालों के जवाब मिल जाये पर इनको जिस रुप में प्रस्तुत होना चाहिए, जिस रुप में इन्हें व्यवहार में लाया जाना चाहिए वो शायद सपना। नेता …राजनेता…बस सब के सब अपना हित चाहने वाले अंधा बांटे रेवडी अपने-अपनो को ही देत की कहावत इन नेता पर पूर्णतः चरितार्थ होती है।
मीडिया को कोसने से काम बनता दीखता है तो कोसो … ये सब सरकार के जरुरी अंग बन जाते हैं। हाँ, आज तो लगता है कि मिडिया भी बिजनेस मैन के हाथो का व्यापार… जैसे चाहा अपना व्यापार बढाया…जो चाहा बेचा…
जनता की आवाज कहा जाने वाला पत्रकारिता का क्षेत्र………लोकतंत्र का मजबूत चैथा स्तंभ खोखला हो चुका है। जहाँ परोसा जा रहा है चटपटा मनोरंजन मसाला खबरों को, जिनमें समस्याएँ कम दिखावटी पन ज्यादा। खासतौर से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तो आज जन समस्याओं का मखौल उडाता नजर आता है। चाहे वो गुहावटी(असम) की घटना हो या ओर काई। ……..ये तो खुद को कैमरा और माइक का पुजारी समझता है, स्वयं को साफ-पाक समझ बैठा है। सनसनी पेशकश………..टीवी चैनल्स लगता है बस स्टोरी बनाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते है जहाँ लगता है किसी जासूसी उपन्यास का फिल्मांकन किया जा रहा हो….आज तो खबरें कम नारेबाजी ज्यादा। कहीं भी नहीं लगता कि ये नेताओं से कम है बस एक मामा तो दूसरा भंानजा। हर कोई सरकार से उम्मीद करता है कि उसे कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए.. उठते हैं मीडिया के लिए पर वो अपने लिए स्थिर भाव रखें हैं।
घोटालो में लिप्त लोगो का क्या बिगडा? जेल में रहें तो ज्यादा सुरक्षित , आराम तलबी ओर बढ जाती है। और छूटने के बाद पूरी स्वामी भक्ति से अपनी पार्टी का साथ निभाने चले आते हैं ……..बडे़ लोगो का जेल जाना पुराना ट्रेंड रहा है……….बापू जेल गये, जवाहर लाल जी जेल गये, …सभी महापुरुषों ने किसी न किसी रुप में जेल को अपना आवास बनाया ही ….फिर आज के ये महापुरुष उन से क्योंकर कम रहें …..भले ही इनके मकसद अलग हो परंतु देश तो एक ही रहा है ना..! सो ये घोटाले बाज अपनी तुलना महान आत्माओं से करने से भी नहीं चुकते।
ये राजे लोग तो कह उठेगें ‘फर्क क्या पडता है?’ ……..फर्क क्या पडता है? का हथौडा चलता है, सब टूटकर बिखर जाता है और लिखे शब्द स्वयं से लिपटकर रोने लगते हैं, झंझावत उद्विग्नता फिर छा जाती है और कलम चुपचाप अपना काम किये जाती है…‘कोई फर्क पडने वाला तो नहीं, पर आशा का साथ छोडे तो कैसे ?, आखिर हम सभी तो इस लोकतंत्र की रीढ है….हम जनता है…. कैसे खुद को ध्वस्त करें?……………..वास्तव में यहाँ इक समानता दिखती है -सरकार और जनता में। सरकार अपने काम के प्रति आशावान है और जनता अपनी सोच को आशावान बनाये है……………’

जय हिन्द! जय जगत!

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