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मस्तिष्क का खेल – विचारों का खेल

सहज प्रवाह
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मस्तिष्क का खेल – विचारों का खेल
एक विचार ही एक महाशक्ति बन या बना सकता है। विचार एक ऐसा साधन जिसके कारण ही दिमागी दुनिया अपने को ओर मजबूत करती जा रही है। खत्म नहीं होता मस्तिष्क में विचारों की चहल-पहल का सिलसिला। स्पंदन होता रहता है- कभी तीव्र, कभी धीमी गति से। विचारों की उथल-पुथल दिन भर चलती ही रहती है। ऐसे में यदि हमारी सोच जटिल होगी तो मस्तिष्क के भीतर चुलबुलाहट करने वाले ये विचार भी जटिल होेंगे यानि नकारात्मक सोच के कारण नकारात्मक प्रभाव के कारण नकारात्मक भाव क्षेत्र में वृद्धि होगी और इसके विपरीत यदि सोच सकारात्मक होगी तो क्रमानुसार सकारात्मक भाव क्षेत्र बढेगा। कहने का आशय यह है कि विचारों की सकारात्मकता से जिस प्रकार दिमागी उर्जा संतुलित और सही उपभोग में खर्च होगी वहीं नकारात्मक से ये नष्टप्राय हो जायेगी । इस क्रम में विचारों की स्वतन्त्रता जरुरी है। विचारों की स्वतन्त्रता के साथ समाधान की विशिष्ट प्रणाली कारगर होगी- उलझन बनते चले जाने से सम्भव नहीं।
भौतिकता में बौद्धिकता का प्रबलता से विकास होता है परंतु बौद्धिकता का क्षेत्र संक्रमित हो जाता है- आर्थिकता से -हम आर्थिक रुप से ही मजबूत/शक्तिशाली होने को अपना अहम उद्देश्य साबित करने में लग जाते हैं, कहीं हद तक करते भी है – ये बात बढते-बढतें चाहें स्वीकारात्मक विचार से शुरु हुई हो – औरो के तमाम सुखों – समृद्धि को ठेस पहुँचाती है। हम सकारात्मकता का प्रयोग खुद पर सटीक ढंग से करने के बजाय खुद के उच्च विचार को निम्न स्तर देते हैं। ऐसे में विचारो का प्लेटफार्म डगमगा जाता है। हम विजन से बहुत पीछे होते हैं। आर्थिकता के मद में वास्तविक सुख -समृद्धि को भूल जाते हैं। हम पर भूत सवार हो जाता है- हम कुछ सप्ताह में अथवा रातों रात करोड़पति बनना चाहते हैं और दृढता से इस एक विचार को सकारात्मक करार देते है पर ये तो स्वयं से धोखा है। पहले कल्पना क्षेत्र में स्वयं को सतर्क रखते हुए आत्म-निरीक्षण करनी पडे तो झिझक किस बात की। उसमें अपनी पसंद-नापसंद सब शामिल तो होंगी ही लेकिन इस पसंद -नापसंद में सही-गलत का भी निर्णय न्यायबुद्धि से करें- सनकी न हों, न ही आत्मग्लानि तक डूबे-उतरें, मात्र विश्लेषण करें। ‘धन’ भी पाना हो तो अपने सकारात्मक विचार का इस्तेमाल सकारात्मक पथ में ही करें, न कि सोच तो रखें सकारात्मक (अपने हिसाब से) और पथ चुनें नकारात्मक तब ऐसी परिस्थिति में विचार का प्रभावित होना लाजमी है। उसमें विचलन होगा- तनाव भी और यही सब आप/हमारी सोच को नकारात्मक बना देगा। तो निर्णय सोच समझकर लें।
महसूस करने की बात है- यह कोरी कल्पना नहीं। अनुभव से इसे जानना चाहिए। प्रयत्न से इसे रुप दिया जाये और फिर भरसक परिश्रम से पूर्णतः में बदला जाये। दृढता – विचारों की । गुत्थी सुलझाये पर सुलझाते सुलझाते उलझे नहीं- सुलझाने में दृढता रखें, उलझने में नहीं।
प्लेटो ने विचार को ही महान आदर्श के रुप में स्थापित किया परंतु केवल स्वस्थ विचार को – दृढ विचार को । कमजोर विचार खोखला होाता है- उस पर भव्यता का कितना ही सुन्दर आवरण हो – वो फिर भी बदरंग लगेगा। महसूससियत में अपने को डूबा दें। कार्य कारण की शक्ति के साथ- कर्म द्वारा मात्र सोचना ही करगर नहीं। माना किसी को भूख लगी है- वो सोचे मैंने रोटी खा ली है तो वह भूख नहीं मिटा सकता है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा जतन से प्राप्त कर उसे यथार्थ रुप में प्राप्त कर सकता है। सपने देखें जाते है- चाहे वो टूटे या साकार होे। हाँ, जो सपनने दृढता की नींव पर दृश्यमान होते हैं- वो एक न एक दिन साकार होते ही हैं।
हमारी ही वैचारिक तरंगे हमसे प्रभावित हो- ऐसा नहीं। ये तो उस प्रत्येक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है जो इस सृष्टि में हमारे विचारों से मेल खाता है- यानि मस्तिष्क में उठ रहे विचारों की तरंगगति बहुत तेजी से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रसारित होती है। प्रभावित करती है- हर एक उस शख्स/वस्तु/स्थान अथवा संज्ञा को जिसे हमने सोचा। वाकई मानने वाली बात है- सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में आकर्षण का सिद्धांत कार्यरत है।
ऐसे में हम अपने विचारों को अनेक भागों में प्रेषित करतें हैं। विचारों की गहनता ही आदत बन जाती है और सनकपन भी। वैचारिक भावावेश में अस्तित्वहीनता भी मौजूद हो सकती है परंतु वैचारिक दृष्टिकोण यदि 100 प्रतिशत सकारात्मक हो तो कोई भी अन्य विचार जो भले ही प्रभावी हो -उससे पिछड जायेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि सकारात्मक विचारों का प्रभाव क्षेत्र मजबूत है तो नकारात्मकता का विस्तारित प्रभाव क्षेत्र डगमगा जायेग क्योंकि सकारात्मक प्रभाव क्षेत्र में स्थिरता स्वयं के प्रखर विस्तरण में आकर्षित होती है। उसमें समझे चुम्बकीय बल अधिक होता है जबकि नकारात्मक विचारों में तनाव अधिक। तनाव में तन्यता बढती है जिससे विचार द्वंद्वात्मक स्थिति में टूट कर बिखर जाते है- सटीक नहीं रह पाते। अब किसी हत्यारे से पूछे कि सकारात्मक अथवा नकारात्मक विचारा उसके लिए कौन-कौन से है?- वो उपर से कुछ भी कहें पर भीतर उसमें नकारात्मक विचारों का अधिक विकसित रुप घर कर चुका होता है। तभी तो वो हत्यारा बना। क्योंकि नकारात्मक पथ पर ही हम स्वयं के शिकार होते हैं। कई बार सकारात्मक सोच बनाये रखने में वातावरण का साथ चाहिए होता है- मन के सही संतुलन से वो भी मिल जाता है – सकारात्मक सोच में मात्र भलाई , खुशी और चाहत होती है वहाँ वैर, क्रोध, आपराधिक भाव नहीं। पहले वास्तविकता को समझे फिर विचार में स्थिरता पैदा कर खडे़ हो जायें। अपने लक्ष्य की सच्ची प्राप्ति अवश्य होगी।

सत्येन्द्र कात्यायन

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