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उलझन

सहज प्रवाह
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उलझन या समस्या एक ऐसा नाम जो स्वयं में उलझा हुआ है। ये समस्या का पर्याय होकर भी समझ में नहीं आता, साधरण रुप में भले ही हम इसे समझ लें किन्तु वास्तविकता में इसकी शक्ल भी स्वयं में उलझाने वाली होती है। खैर, मैं भी कहाँ का पचडा उठा के बैठ गया। बात ये है इस समय मैं भी उलझन में हूँ …….. यहाँ इसे विपदा नहीं कहा जा सकता, ये संकट भी नहीं, बस अपने में अलग।
सीधे से प्रश्नों के उत्तर में हम उलझ जाते हैं, कई बार पेचिदा प्रश्न तो उलझन बढाता है, मौके-बेमौके दिमाग में विचारों की उलझनें चलती रहती हैं। कई बार तो ये वैचारिक या मानसिक उलझन हमें पागल कर देती है और हम आजीवन उस हादसे के इर्द-गिर्द उलझ कर रह जाते हैं। ये शब्द भले ही चार अक्षरों के लघुकाय रुप में हो परंतु इसी में धर्म, अर्थ काम, मोक्ष तक की बातें छिपी हैं, रहस्य है-ये।
धमें से लेकर मोक्ष तक भी हम उलझे ही रहते हैं। अपने में या संसार में। मोक्ष हो जाये तो इस उलझन से मुक्ति मिल सकती है। पर मोक्ष तक ये उलझन उसका आभास भी नहीं होने देती है। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था-‘हमें समस्या बनकर नहीं समाधान बनकर जीना चाहिए।’ वास्तव में इस पंक्ति में जीवन की कितनी बड़ी सच्चाई है। हम उलझन स्वयंहै, स्वयं उलझते है पर समाधान के लिए दूसरों का सहारा चाहतें हैं। क्यों?, अरे भई! उलझे खुद, फंसे खुद, पर निकलने के लिए खुद कुछ कर नहीं सकते। अब उलझन बढती है…. समाधान या उसे सुलझाने की सुध खो जाती है, यह क्यों?…….शायद मानव की उत्पत्ति के साथ ही समस्या का उलझन का जन्म हुआ समाधान जिसने ढॅूढा, जो ढूँढ रहा है वह स्वयं ही मुक्त हो गया। अरे! मोक्ष क्या है? ……….भगवत प्राप्ति। इस आवागमन से मुक्ति पर मोक्ष के लिए ही क्यूं भजन किया जाये यह तो मेरे विचार से स्वार्थमयी बडी उलझन है, जिसमें केवल आत्महित है-केवल अपनी आत्मा की मुक्ति! पर लाखों करोडों मानवों की मुक्ति का प्रश्न कोई नहीं छेडता। आखिर हम उलझनों को सिर्फ अपने लिए बुनते क्यों नहीं , क्यूं दूसरों को भी उस उलझन में ंफंसाते है पर जब समाधान मिला तो केवल स्वयं उसका लाभ उठाना चाहते है, यह तो निरी स्वार्थता ठहरी, मुक्ति का समय आया…………स्वयं मुक्त हो गये, बाकी के बारे में प्रभु से एक बार भी विनती नहीं की। क्यूं?
आज हम भागीरथ तप करना भूल गये जिसने अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि अपने कुल के शापित भस्मित सगर के पुत्रों के उद्धार के लिए तप किया और मात्र ये उन्हीं की मुक्ति का प्रश्न नहीं था, संसार को गंगा जी के पावन जल से सिक्त करना भी था। हम भूल गये उन ऋषि-महर्षियों को जो स्वयं आहुती बने लोकमंगल के लिए। दधीचि सरीखें महापुरुषो को।
‘मोक्ष’ भी कामना है, फिर क्यूं हम इससे आत्मकल्याण करना चाहते हैं। ऐसा मोक्ष लें जिससे सर्वजन का कल्याण हो, सर्वात्माओं का कल्याण हो। जिससे समानता का नया दौर शुरु हो। जिसमें समाधान हो- ‘जीव’ की समस्याओं का।
भूखे-नंगे बदन मानव, उनसे जाकर कहं- ‘भई! तप करों, योग करो, आहार-विहार छोड दो।…आत्मकल्याण के लिए……भगवत प्राप्ति के लिए।………अरे भई! वो ये सब तो पहले से छोडे बैठे है….निराहार रहकर …….तन ढकने को वस्त्र का एक टुकडा भी नहीं बहुतों के पास ……..योग कर रहें उनके भूखें बदन सूख गये। और कैसा योग करें वो?..आहार विहार की बात तो उनके मस्तिष्क में कभी फटक भी नहीं सकती। वो अपने में इस कदर उलझे हैं, हम उन्हें समाधान भी विपरीत दे रहे हैं।
घर-घर तक सरकार उलझने बांट रही है पर जिनके घर ही नहीं वो इन उलझनो से बेखबर, …..मैं यदि सरकारी सहायता को उलझन कहूं तो ये कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी आज के दौर में । क्योंकि वास्तव में ये सहायता भी उनके पाले में आती है जो स्वयं इन उलझनों के हकदार नहीं….जो बडी उलझन से उलझती सी रहती है…..और यदि ऐसा नहीं तो फिर इतनी योजनाएँ…सब फेल होती दिखती है। बस ये उलझन रुपी योजनाएँ कागजों में समाधान प्राप्त कर पाती है बाकी तो सब उलझा पडा है। खैर, उलझन की दुनिया में बेवजह ही उलझनो ंका ताना बुना जा रहा है- ऐसा शायद मेरा एक विचार हो या एक बडे समुदाय का।
हाँ, बात मुक्ति की थी- अर! मुक्ति वुक्ति आज इतनी सस्ती हो गयी कि किसी भी धर्म के ठेकेदार, आश्रमवासी, डेरों और सडकों पर लगते कैम्पनुमा मजमों में खरीदी जा सकती है! हाँ वे मुक्ति के विक्रेता मुक्त नहीं होना चाहते, क्यूँ? इस प्रश्न का सीधा सा जवाब थमाया जा सकता है- भई ! तुम्हारी उलझनों के समाधान करने यानि तुम्हें मुक्त करने, करवाने वाले ही न रहेंगें तो मुक्ति कैसे मिलेगी? आजकल इस उलझन में इंसान ने ब्रहम को भी फंसा रखा है। एक दिन एक विज्ञापन लाउड स्पीकर से हो रहा था – ‘‘ आपके कस्बे में अमेरिका के बाद ‘शिव’ पधारें हैं। भगवान शिव के दर्शनों, उनको जानने का सौभाग्य प्राप्त करें।’’ मतलब भारत की कथा-पुराणादि में भगवान शिव का परिचय मिलता तो पर वे शायद अमेरिका से पहले से जुडे अथवा अमेरिका में पहले शाश्वत रुप में प्रकटे, अब भारत भ्रमण पर निकल पडे- देखूं ये भारत क्या बला है! वाह ! खूब कही, कुछ दिनों में इंग्लैण्ड से विष्णु जी, भारत आयेगें। फिर तो सारे देवी देवता इस तरह विदेशी साबित हो जायेेगे या एन आर आई।
अरे! ये अन्ध भक्ति कब तक? ये भ्रडाचाल कब तक? प्रश्न मुक्ति का उठाकर इस संसार में उलझना-उलझाना कब तक? गीता के श्लोको को पढा पढाया , सुना सुनाया पर उसे भीतर नहीं डाला, रही बात आत्म कल्याण की वो आवश्यक है – जब अपना कल्याण होगा तभी तो दूसरों के कल्याण का अवसर प्रभु देंगे। तभी उस परमेश्वर से सर्वात्म कल्याण की बात कहेंगे पर कैसे करें-आत्मकल्याण? मठों में जाकर , स्वांग रचकर, चोला बदलकर, घर छोडकर, वनों में भटककर, ना! आत्मकल्याण तो आत्मा का स्वयं हो जाता है यदि वह मानवहित में , सभी प्राणियों के हित में अपना सब कुछ लगा दें।
तब भी उलझन ज्यों की त्यों? क्योंकि हममें समाधान बनने की शक्ति नहीं हम उलझते-उलझाते घूमते हैं-सत्य के इर्द-गिर्द पर उसको स्वीकारने में, उसको पाने में उलझ जाते हैं। हो भी क्यूं ना ये सब एक सत्ता की माया है जो हमें जांच रहीं है, परख रहीं है कि ये आत्मकल्याण कर सकने में समर्थ है…….जब स्वयं खाना आता है तो दूसरों को खिलाना भी सिखना चाहिए……..अब मैं भी इस माया के भ्रम में जाने क्या-क्या लिख गया? हाँ जो सत्य है वो मुझसे अब भी दूर ही है……मैं भी उपदेश कर सकता हूँ पर इन उपदेशों को आत्मसात कर सकने के काबिल बनाने में सदियों लग जायेंगी। तुलसी ने तो पहले ही सतर्क कर दिया -‘‘ पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहीं ते नर न घनेरे’’ वो तो प्रभु की कृपा हो सकती है जो इस उलझन से मुझे समाधान की ओर ले जाये। मै पामर, निकृष्ट जो इस संसार को माया समझ बैठे है, कर्म को भूल स्वयं में उलझ रहें हैं। अतः उलझन क्या है? – यह संसार नहीं हम स्वयं है। अरे!! फिर से मैं शुरु हो गया………..ये भी उलझन ही है।
– सत्येन्द्र कात्यायन

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