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किसान, गरीबी और मंहगाई ……….

सहज प्रवाह
सहज प्रवाह
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खेतों की काली मिट्टी
मिट्टी को आकार देता किसान
क्यारियां बना रहा
हाथों में लिए फावडें से
धरती का श्रृंगार कर रहा
कहीं लम्बी लम्बी क्यारियां
कहीं चैकोर
मेढ बंाधता
नालियां बनाता
फांसला देते हुए

इस काम के बाद
सींचता जमीन
मिट्टी के कण कण को करता तृप्त
बुझाता प्यास मिट्टी की
खेत करता तैयार
खेतों में बोने लगता ….
छोटा किसान शाक सब्जी
बडा किसान गेहूं, चावल, गन्ना आदि
इन सबों के लिए
करता ऋतुओं का इंतजार

शीत घाम सब दिवस
करता रखवाल खेतों की
चावल के लिए
पानी भरता खेतों में
या करता वर्षां का इंतजार
तालाबनुमा खेत
धंसते पैर
लंगोटी कसके बांधे
औरते साडी की लंगोटी सी बनाती
हाथ धंसाध्ंासा कर पौध्ेा रोपते
जमीन में पैदा होते न जाने कितने जीव जंतु
जोंक आदि
रोक नहीं पाते किसान को
वो बराबर करता काम
बराबर करता जाता काम
हांफता हुंफता करता काम
घर के सब जन खेती के दिनों में
लगे रहते पूरे पूरे दि न

खेत के बाद
टहल करता घर के जानवरों की
घर की

खेत जब लहलहाते
सुनहरी चादर तानती धरती
सब्जियां उगती दो दो माह बाद नयी नयी
कभी आलू कभी कचालू
कभी भिण्डी कभी तोरई
कभीर गोभी कभी पालक
कभी टमाटर कभी गाजर
कभी कुछ तो कभी कुछ
बदली सब्जियां
बदलता जिन्दगी का स्वाद
जीवन में भरता रस
किसान झूमता
मगन होता
अब वो पहले वाले गीत तो नहीं गाता
पर रेडियो ंया एफ0 एम0 या मोबाइल पर सुनता
कोई अपना पसंदीदा गीत
मस्ती में मस्त होकर
फसल की करता देखभाल
इस मस्ती में मिठास है तो चिन्ता की खटाई भी

खेत में लहलहाती फसल
कोई भी देखकर झूम सकता है
पर जिसने रोपा
जिसने जोता खेत को
जिसने दिन रात देखभाल की
एक एक पौधे की
खेत को जो है पालता पोसता
और फिर बेचता है अपने पेट के लिए
फसलों को ओने पोने दाम पर
वह उस वक्त मेहनत की याद करता है
सारे दृश्य उसके सामने आते
जब वो चिडियों से बचा रहा था एक एक दाना
उडा रहा था हर पक्षी को
कही खेतों में खडा किया था हव्वा
आदमीनुमा जिसे देखकर उड जाते पक्षी
और कभी कभी तो अनजान आदमी भी भय खा जातें
वो बचा रहा उन्हें सभी की नजरों से
आज बेच रहा है
बेचने के लिए ही तो
की थी उसने इतनी मेहनत
पर मेहनताना जब ठीक ना मिले
तो जी में कुछ अजीब सा होता है
वो सोचता है पर सोचने से क्या होता है
इस स्थिति से गुजरता है रोज छोटा किसान
बडा तो आखिर बडा है
नौकर चाकर सौ झंझट है उसके पास
छोटा किसान जब इस दौर से गुजरता
जोड नहीं पाता दो वक्त का अनाज
खा नहीं पाता जब भर पेट
और लड नहीं पाता मंहगाई से
तब वो खिन्नता से भर जाता है
कई तो बेचते है अपनी धरती मां को
और करते है कुछ और
कुछ भी
उस कुछ में चाहे मजदूरी हो
चाहे छोटा मोटा व्यापार
जिससे वो आज के जमाने में पाल सके अपना परिवार
सरकार देती कहां ध्यान
गरीब की जात पूछी जाती या गरीबयत
कौन सुनता गरीब की अरदास
गरीब तो पहले भी गरीब था आज भी
पहले भी उसे पेट काटना पडता था आज भी
आज तो वो इस पापी पेट को कोसता है
जो ये ना होता तो वो भी गरीब ना होता
वो चिंतित ना होता
ना होती उसे कोई कमी
ना बेचता गरीब किसान जमीन
ना लेता कर्ज
ना करता आत्महत्या
पर ये सब होना था
हो रहा है
होता रहेगा
– ऐसा कहकर
इससे पार पाया जा सकता है?
क्या ऐसा कहकर मेढे बनायी जा सकती है
क्या क्यारियां की जा सकती है तैयार
और उगाई जा सकती है सभी के लिए तरकारियां
क्या मोटे मोटे अमीर आदमी
पल सकते है बगैर किसान के
जो उसी किसान को मजदूर बनाने में भी नहीं शर्माते
अन्नदाता की जब ये हालत तो
जिसके पास ना धरती मां है
ना कुछ
जो करता है मजूरी
तब वो क्या बेचेगा
अपनी समस्या से निजात पाने के लिए
शायद खुद को!

– सत्येन्द्र कात्यायन

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